कहानी: "चंद्रकांता वन की यक्षिणी"

कहानी: "चंद्रकांता वन की यक्षिणी"





भाग 1: रहस्यमयी जंगल


उत्तराखंड की पहाड़ियों में बसा एक छोटा-सा गाँव था – "मणिकेत"। गाँव के पास एक घना जंगल था, जिसे "चंद्रकांता वन" कहा जाता था। लोग कहते थे कि वहाँ रात को अजीब सी स्त्री की हँसी सुनाई देती है। कोई उसे यक्षिणी, कोई डायन, और कुछ उसे जंगल की रानी कहते थे।


आरव, एक साहसी ट्रैवल ब्लॉगर, इन अफवाहों की सच्चाई जानने वहाँ पहुँचा। कैमरा, टॉर्च और ज़रूरी सामान के साथ वह जंगल की ओर बढ़ा। दिन में तो सब सामान्य लगा, मगर जैसे ही रात हुई, सब कुछ बदल गया।


भाग 2: पहली मुलाकात


अंधेरे में, एक झील के पास, आरव को एक अद्भुत स्त्री दिखाई दी — लम्बे खुले बाल, सफेद झील जैसा चमकता वस्त्र और आँखों में अजीब-सी चमक। वो स्त्री बोलती नहीं थी, पर उसकी आँखों में कुछ ऐसा था जो आरव को खींचने लगा।


"तुम कौन हो?" आरव ने पूछा।


उसने सिर्फ मुस्कराकर इशारा किया — "मेरे साथ चलो।"


आरव मानो सम्मोहित हो गया। वह उसके पीछे-पीछे चल पड़ा, और दोनों एक गुफा में पहुँचे, जहाँ सुगंधित धूप जल रही थी और दीवारों पर प्राचीन यक्षों की चित्रकारी थी।


भाग 3: प्रेम और रहस्य


उस रात यक्षिणी ने आरव के साथ समय बिताया। उसका स्पर्श ठंडा था, मगर सुकूनभरा। उनकी आँखों में एक-दूसरे के लिए आकर्षण था। उसने आरव को चूमा, और वह अनुभव किसी सपने जैसा था — रोमांचक, कामुक और अवास्तविक।


मगर अगली सुबह जब आरव जागा, तो वह अकेला था। गुफा खाली थी, जैसे वहाँ कोई कभी था ही नहीं। बाहर निकलते ही गाँव के कुछ बुज़ुर्गों ने उसे देखा और डाँटना शुरू किया।


"क्या तुम उस यक्षिणी के पास गए थे?" एक बूढ़े बाबा ने पूछा।


"वह तुम्हारी आत्मा को धीरे-धीरे चूसकर मार देगी।"


भाग 4: राज खुलता है


आरव ने खुदाई शुरू की। गाँव के एक पुराने ग्रंथ में लिखा था —

"चंद्रकांता, एक यक्षिणी थी जो प्रेम में धोखा खाने के बाद तंत्र विद्या में लिप्त हो गई। उसका प्रेमी उसे छोड़कर मनुष्य लोक चला गया। तब से वह हर पूर्णिमा की रात, किसी जवान पुरुष को अपने प्रेम-जाल में फँसाकर उसकी आत्मा को बाँध लेती है, ताकि वह अकेली न रहे।"


आरव समझ गया — वो यक्षिणी उसे छोड़ने नहीं देगी।


भाग 5: अंतिम निर्णय


अगली पूर्णिमा पर आरव फिर उसी जगह गया। इस बार वह डरा नहीं, तैयार था। यक्षिणी आई, सुंदर, मोहक, और उदास।


"तुम लौट आए?" उसने पूछा।


"हाँ, लेकिन इस बार तुम्हें मुक्ति देने के लिए।"


आरव ने रुद्राक्ष की माला और एक विशेष मंत्र का जाप किया जो उसने एक साधु से सीखा था। यक्षिणी चिल्लाई, उसकी आँखों से आँसू बहने लगे — मगर वो पीछे नहीं हटी।


"क्या तुम मुझसे प्रेम करते हो?" उसने अंतिम बार पूछा।


"हाँ, लेकिन तुम्हें बाँधकर नहीं... मुक्त करके।"


यक्षिणी की आँखों में प्रेम और पीड़ा का मिश्रण था। वो मुस्कराई, और एक तेज़ प्रकाश के साथ हवा में विलीन हो गई।



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अंत: प्रेम जो बंधन नहीं, मुक्ति दे


आरव लौट आया, लेकिन उसका दिल कहीं उस यक्षिणी के साथ रह गया था। जंगल अब शांत था, मगर हर पूर्णिमा की रात, झील के पास एक हल्की सी हँसी सुनाई देती थी — मानो वो आज भी उसे देख रही हो।



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