🌅 अध्याय 7 – श्राप का अंत
जंगल अब शांत था।
तांत्रिक राख बनकर उड़ चुका था, लेकिन उसकी छाया अभी भी वैदेही के दिल पर भारी थी।
उसकी गोद में वीरेंद्र पड़ा था—निढाल, आँखें बंद, और साँसें मंद।
वैदेही के आँसू उसके चेहरे पर गिर रहे थे।
उसने काँपते हुए कहा—
“नहीं… ऐसा मत करो।
सदियों से मैं अकेली थी, वीरेंद्र… तुमने मुझे जीना सिखाया।
तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते।”
🥀 निराशा और प्रार्थना
उसने आसमान की ओर देखा।
चाँद पूरा चमक रहा था, जैसे उसके दर्द का गवाह हो।
“हे देवताओं!” वैदेही चिल्लाई।
“सदियों तक मैंने श्राप सहा है, अकेली भटकी हूँ।
अब जब मुझे सच्चा प्रेम मिला है, तो क्या ये भी मुझसे छीन लोगे?
अगर प्रेम पवित्र है… तो इसे मौत से मत हारने दो।”
उसकी चीख़ के साथ ही जंगल में हवा थम गई।
एक पल के लिए सबकुछ रुक सा गया।
✨ चमत्कार
अचानक वीरेंद्र के सीने से जहाँ भाला धँसा था, वहाँ से नीली रोशनी फूटने लगी।
वो रोशनी वैदेही के आँसुओं से मिल गई और एक दिव्य आभा बन गई।
धीरे-धीरे वीरेंद्र की साँसें वापस लौटने लगीं।
उसकी बंद पलकें काँपीं और उसने धीरे से आँखें खोलीं।
वैदेही अविश्वास से उसे देखती रह गई।
“वीरेंद्र… तुम ज़िंदा हो!”
वीरेंद्र ने कमज़ोर मुस्कान के साथ कहा:
“मैंने कहा था न… मौत भी हमें अलग नहीं कर सकती।”
🌸 श्राप का टूटना
उसी क्षण वैदेही के शरीर से एक काली परत जैसे उतर गई।
उसकी लाल आँखें सामान्य हो गईं, बालों की जटाएँ चमकदार लटों में बदल गईं।
उसकी सुंदरता अब किसी देवी जैसी लग रही थी।
श्राप टूट चुका था।
वैदेही ने हाथ जोड़कर आसमान की ओर देखा।
“धन्यवाद… सदियों की सज़ा अब समाप्त हुई।”
💕 प्रेम का आलिंगन
वीरेंद्र ने धीरे से उसका हाथ पकड़ा।
“अब तुम्हें कोई डायन नहीं कहेगा।
अब तुम सिर्फ़ मेरी वैदेही हो।”
वैदेही की आँखों से आँसू फिर गिरे—लेकिन इस बार ये आँसू दर्द के नहीं, खुशी के थे।
उसने उसे कसकर गले लगा लिया।
जंगल, जो सदियों से डर और श्राप का प्रतीक था, अब प्रेम और मुक्ति का साक्षी बन चुका था।
🌙 समापन
गाँव वालों ने धीरे-धीरे देखा कि जंगल से डर मिट गया है।
वहाँ अब न भूत थे, न चीख़ें—बस शांति।
और बीच में खड़ा था प्रेम का प्रतीक—वीरेंद्र और वैदेही।
उनकी कहानी ने साबित किया—
👉 सच्चा प्रेम श्राप, मौत और अंधकार तक को मिटा सकता है।
✨ उपन्यास समाप्त ✨
