चंद्रगुफा की यक्षिणी

 "चंद्रगुफा की यक्षिणी"




स्थान: मध्यप्रदेश के सतपुड़ा के घने जंगल

काल: 1890 ईस्वी


भाग 1: रहस्य की गुफा


राजवीर, एक साहसी पुरातत्वविद्, को सतपुड़ा के जंगलों में एक रहस्यमयी "चंद्रगुफा" के अस्तित्व के बारे में पता चला था। कहा जाता था कि वहाँ एक यक्षिणी का वास है, जो सौंदर्य और मृत्यु दोनों का रूप है।


राजवीर ने अपने कुछ साथियों के साथ उस गुफा की खोज शुरू की। रास्ता कठिन था—कहीं दलदल, कहीं हिंसक जानवर, और हर जगह एक अजीब-सी सरसराहट। लेकिन राजवीर को डर नहीं लगता था। उसे किसी अदृश्य शक्ति की खिंचाव महसूस हो रही थी… जैसे कोई उसे बुला रहा हो।


भाग 2: चंद्रगुफा की यक्षिणी


आख़िरकार वे गुफा के द्वार तक पहुँचे। गुफा के भीतर जाते ही सभी साथियों को अजीब सपना आने लगा। कुछ ने कहा उन्होंने एक स्वर्गिक स्त्री को देखा जो चाँद की रोशनी में नहा रही थी। अगले दिन सुबह उठते ही तीन साथी बिना कोई शब्द कहे भाग गए।


अब गुफा में केवल राजवीर रह गया।


अंदर एक विशाल पत्थर की मूर्ति थी — एक सुंदर, अद्भुत नारी की। अचानक गुफा की हवा बदल गई। ठंडक बढ़ने लगी, और सामने से वह मूर्ति धीरे-धीरे जीवित होने लगी।


वह थी — यक्षिणी, जिसका नाम था चंद्रलेखा।


उसकी आँखों में चाँद की चमक थी, और उसकी आवाज़ में मधुरता के साथ एक रहस्यमयी शक्ति। राजवीर उसे देखता ही रह गया। न जाने क्यों, उसे भय नहीं, आकर्षण महसूस हो रहा था। यक्षिणी ने कहा:


> "तुम पहले मनुष्य हो, जो मेरी आँखों में देखकर डरे नहीं।"




भाग 3: प्रेम और प्रलोभन


चंद्रलेखा ने राजवीर को अपने संसार में खींच लिया। गुफा अब एक स्वर्गिक स्थान में बदल गई—चाँदनी में नहाया एक आलौकिक बगीचा। वहाँ दोनों ने दिन और रात एक साथ बिताए।


राजवीर को पहली बार लगा कि उसने सच्चा प्रेम पाया है। लेकिन इस प्रेम में वासना भी थी, गहराई भी। चंद्रलेखा ने उसे अपने आलिंगन में लिया, उसके साथ रात्रियों में एक ऐसा सुख बाँटा जो स्वर्ग और नरक दोनों का अनुभव कराता था।


लेकिन हर सुख की एक कीमत होती है।


भाग 4: श्राप की सच्चाई


एक रात, राजवीर ने चंद्रलेखा से पूछा:


> "तुम इंसानों से दूर क्यों रहती हो?"




चंद्रलेखा की आँखों में आँसू आ गए। उसने बताया कि वह एक राक्षसी यक्षिणी है, जिसे एक ऋषि ने श्राप दिया था — कि जो भी मनुष्य उससे प्रेम करेगा, वह सात दिनों में मर जाएगा।


राजवीर स्तब्ध रह गया। पाँच दिन बीत चुके थे।


> "अगर तुम चाहो तो जा सकते हो," चंद्रलेखा बोली।

"मगर मेरा प्रेम... तुझसे बंधा है।"




भाग 5: अंतिम बलिदान


सातवें दिन राजवीर ने एक मंत्रशक्ति से युक्त ताबीज निकाला, जिसे उसने अपनी माँ से विरासत में पाया था। उसने गुफा में अग्नि प्रज्वलित की, और चंद्रलेखा को मुक्त करने के लिए यक्षिणी-मोचन मंत्र पढ़ा।


गुफा हिलने लगी। चंद्रलेखा की चीखें जंगल में गूँजने लगीं।


लेकिन अंत में वह श्राप टूटा… चंद्रलेखा मनुष्य बन गई।


पर राजवीर… उस अग्नि की आहुति में स्वाहा हो गया।


अंत


आज भी चंद्रगुफा में पूर्णिमा की रात एक औरत की सिसकियाँ सुनाई देती हैं —

वह यक्षिणी अब इंसान है, पर उसका प्रेम…

अब अमर बन चुका है।




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