डायन की प्रेमकहानी अध्याय 6 – युद्ध और त्याग

⚔️ अध्याय 6 – युद्ध और त्याग




जंगल जल रहा था।
पेड़ों से चिंगारियाँ उड़ रही थीं, और धुएँ से आसमान काला हो चुका था।
तांत्रिक की हँसी चारों ओर गूँज रही थी—भयावह, कर्कश, और निर्दयी।

वैदेही और वीरेंद्र उसके सामने खड़े थे—एक ओर अमर श्रापग्रस्त आत्मा, दूसरी ओर साधारण इंसान।
लेकिन दोनों के दिल में अब एक ही ताक़त थी—प्रेम।


🔥 तांत्रिक का हमला

तांत्रिक ने मंत्र पढ़ा और उसकी हथेलियों से अग्नि के गोले निकले।
भूतों की भीड़ ने वीरेंद्र को चारों तरफ़ से घेर लिया।
वो तलवार घुमाता गया, एक-एक भूत को काटता गया।
लेकिन हर बार एक गिरता, तो दूसरा उठ खड़ा होता।

तांत्रिक गरजा—
“तू इंसान है! तेरी हिम्मत कितनी भी हो, मेरा श्राप अमर है।
वैदेही कभी मेरी कैद से मुक्त नहीं हो सकती।”


⚡ वैदेही की ताक़त

वैदेही आगे बढ़ी। उसकी आँखों से लालिमा फिर से जगने लगी।
लेकिन इस बार यह डर की नहीं, बल्कि क्रोध और साहस की थी।

उसने आकाश की ओर हाथ उठाया और चीख़ी—
“तेरी विद्या मुझे कैद कर सकती है, पर मेरा प्रेम नहीं!
आज मैं अपने डर को त्यागती हूँ।”

उसके शरीर से नीली रोशनी निकलने लगी।
वो रोशनी जंगल के चारों ओर फैल गई।
भूतों की आंधी जैसे ही उस रोशनी से टकराई, वे चीख़ते हुए राख में बदल गए।


⚔️ वीरेंद्र का बलिदान

लेकिन तांत्रिक हार मानने वाला नहीं था।
उसने अपनी पूरी शक्ति इकट्ठी की और एक भयानक मंत्र पढ़ा।
अचानक एक काली भाला जैसी शक्ति बनी और वैदेही की ओर बढ़ी।

वीरेंद्र ने बिना सोचे-समझे उसके सामने छलांग लगा दी।
भाला उसकी छाती में धँस गया।

“वीरेंद्र!” वैदेही चीख़ उठी।
उसकी आँखों से आँसू झरने लगे।
“तुम्हें चोट क्यों खाई? मैं अमर हूँ, मुझे कुछ नहीं होता!”

वीरेंद्र ने दर्द से मुस्कुराते हुए कहा:
“अगर तुम्हें बचाने के लिए… मेरी जान भी जाए… तो ये सौदा मंज़ूर है।
क्योंकि… यही है सच्चा प्रेम।”


🌌 प्रेम की शक्ति

वीरेंद्र के बलिदान ने वैदेही के भीतर छुपी असली ताक़त को जागृत कर दिया।
उसने उसे अपनी बाँहों में थामकर ज़मीन पर रखा और आसमान की ओर देखा।
उसके आँसू आग की लपटों पर गिरे और रोशनी में बदल गए।

उसने चीख़कर कहा:
“तांत्रिक! तेरा श्राप प्रेम से छोटा है।
आज तेरी विद्या का अंत होगा।”

नीली और सुनहरी रोशनी एक साथ फूटी, जिसने तांत्रिक को चारों ओर से घेर लिया।
वो चीखा, तड़पा, और अंत में राख बनकर हवा में उड़ गया।


💔 मौन का पल

जंगल शांत हो गया।
आग बुझ गई, धुआँ छँट गया।
लेकिन वैदेही की गोद में वीरेंद्र पड़ा था—उसकी साँसें धीमी हो रही थीं।

वो रोते हुए बोली:
“नहीं… सदियों बाद मैंने प्रेम पाया है।
तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते, वीरेंद्र।”

वीरेंद्र ने उसकी आँखों में आख़िरी बार देखा और फुसफुसाया—
“अगर प्रेम सच्चा है… तो मौत भी हमें अलग नहीं कर सकती।”

उसकी पलकें बंद हो गईं।


अध्याय 6 समाप्त
(युद्ध समाप्त हुआ, तांत्रिक नष्ट हो गया। लेकिन अब सवाल है—क्या वीरेंद्र सच में मर जाएगा? या प्रेम की शक्ति उसे जीवन लौटाएगी?)



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