🌙 अध्याय 2 – पहली मुलाक़ात
जंगल की हवा ठंडी हो चुकी थी। पेड़ों की शाखाएँ हवा में टकराकर अजीब सी डरावनी आवाज़ कर रही थीं। ज़मीन पर सूखे पत्ते बिखरे थे, जिन पर वीरेंद्र के हर क़दम की चरमराहट गूँज रही थी।
और उसके सामने… वो औरत।
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👁️ परछाई से चेहरा
उसकी आँखें लाल थीं, जैसे अंगार जल रहे हों। बाल इतने लंबे और घने कि आधा चेहरा ढक लिया था।
वीरेंद्र ने तलवार की मूठ मज़बूती से पकड़ी, मगर उसने तलवार नहीं निकाली।
वो औरत धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ी।
उसकी आवाज़ फटी-फटी लेकिन गहरी थी—
“क्यों आए हो यहाँ? तुम्हें मौत से डर नहीं लगता?”
वीरेंद्र ने काँपती आवाज़ में भी हिम्मत जुटाकर कहा:
“डर हर किसी को लगता है। पर मैं सच जानना चाहता हूँ।
गाँव वाले कहते हैं तुम डायन हो।
लेकिन… तुम्हारी आँखों में डर से ज़्यादा दर्द दिखता है।”
वो औरत रुक गई।
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🌑 रहस्य का इशारा
कुछ क्षणों तक चुप्पी छाई रही।
फिर उसने धीमी मुस्कान दी—ऐसी मुस्कान जिसमें रहस्य और पीड़ा दोनों छुपे थे।
“तुम्हें पता नहीं, मैं कौन हूँ… और क्यों इस जंगल से बंधी हूँ।”
वीरेंद्र ने साहस करके कदम आगे बढ़ाया।
“तो बताओ। शायद तुम्हारी कहानी सुनने वाला मैं पहला इंसान हूँ।”
उसने पहली बार अपने बाल चेहरे से हटाए।
उसके चेहरे पर खूबसूरती झलक रही थी, मगर आँखों में सदियों का अंधेरा।
वो बोली:
“मेरा नाम है… वैदेही।”
🥀 वैदेही की चेतावनी
वैदेही ने धीरे से कहा—
“यह जगह इंसानों के लिए नहीं है।
जो भी यहाँ आया, ज़िंदा नहीं लौटा।
तुम्हें भी नहीं रुकना चाहिए।”
वीरेंद्र ने मुस्कुराते हुए कहा:
“अगर तुम सच में इंसानों का खून पी जाती हो, तो अब तक मैं ज़िंदा क्यों हूँ?”
वैदेही चौंक गई। उसकी आँखों में पहली बार हल्की सी चमक आई।
“क्योंकि… मैं वो नहीं हूँ जो लोग समझते हैं।”
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✨ मुलाक़ात का अंत
हवा और ठंडी हो गई। कहीं दूर से सियारों की हुआँ-हुआँ सुनाई देने लगी।
वैदेही पीछे हट गई और बोली:
“आज रात लौट जाओ।
फिर भी अगर सच जानना चाहते हो… तो कल इसी जगह आना।”
वीरेंद्र ने उसकी आँखों में देखा।
वहाँ कोई राक्षसी चमक नहीं थी—वहाँ तन्हाई थी, सदियों की।
उसने सिर हिलाया और जंगल से बाहर निकल गया।
लेकिन उसके मन में अब एक नया सवाल था—
"आख़िर ये वैदेही कौन है? और इस जंगल से क्यों बंधी है?"
✨ अध्याय 2 समाप्त
(अब वीरेंद्र और वैदेही के बीच रिश्ता बनने की शुरुआत होगी। अगले अध्याय में उसका श्राप और दर्द सामने आएगा।)
