चंदन वन की यक्षिणी 2

 🕯️ कहानी: "चंदन वन की यक्षिणी"


अध्याय 1: आगमन




साल 2024।

आरव शेखावत, एक 30 वर्षीय पुरातत्वविद, राजस्थान के एक दूरस्थ गाँव बदनपुर में शोध के लिए आता है। उसे यहाँ एक प्राचीन मंदिर के अवशेषों के बारे में जानकारी मिली थी, जो अब एक रहस्यमयी जंगल — चंदन वन — में छुपे हुए हैं।


गाँव वालों ने उसे चेतावनी दी:


> "साहब, चंदन वन में रात को मत जाना। वहाँ यक्षिणी रहती है… जो दिल चुराती है, और आत्मा निगल जाती है।"




आरव ने हँसते हुए कहा, "अरे भूत-प्रेत किताबों में अच्छे लगते हैं। मैं इतिहास खोजने आया हूँ, डरने नहीं।"


उसे नहीं पता था कि वो इतिहास नहीं, भाग्य खोजने जा रहा है।



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अध्याय 2: पहली मुलाकात


आरव जंगल के भीतर गहराई तक पहुँचता है। रास्ता भूल जाता है, पसीना-पसीना हो जाता है। तभी एक झील के किनारे उसे एक स्त्री दिखती है…


एक रूपवती, अलौकिक सौंदर्य से भरी स्त्री। उसका बदन दूधिया था, बाल जैसे काली घटाएँ, और उसकी आँखें… जैसे वे सबकुछ पढ़ सकती थीं।


> "तुम कौन हो?" आरव पूछता है।




> "मैं चंद्रलेखा हूँ… चंदन वन की रक्षक," वह कहती है।




आरव सम्मोहित हो जाता है। लेकिन उसकी बातों में कुछ तो था — जैसे आवाज़ कानों से नहीं, सीधे दिल में उतरती हो।



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अध्याय 3: आकर्षण


अगली कई रातें आरव वहीं जाता है। चंद्रलेखा उससे बातें करती है — जीवन, मृत्यु, प्रेम, आत्मा और प्यास के बारे में।


एक रात, जब चाँद पूरा था, वह आरव के और पास आई।


उसके होंठो ने जब आरव की गर्दन को छुआ, एक हल्की बिजली सी दौड़ गई। न वह पूरी तरह डर पाया, न विरोध कर पाया। उसका शरीर उस स्पर्श में घुलता गया।


"तुम इंसान हो, लेकिन तुम्हारी आत्मा… बहुत पुरानी है…" वह कहती है।


उस रात झील के पास पहली बार उनके होंठ मिले — एक धीमा, धीमे जलते दीपक जैसा चुम्बन।


कामुकता की लहर थी, पर कोई जल्दबाज़ी नहीं।

जैसे दो आत्माएँ एक बंधन में बँध रही हों।



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अध्याय 4: रहस्य खुलता है


आरव को धीरे-धीरे पता चलता है कि चंद्रलेखा कोई साधारण आत्मा नहीं है।


वह एक यक्षिणी है — एक प्राचीन रक्षक, जिसे एक ऋषि ने मंदिर की रक्षा के लिए बाँध दिया था। उसे मुक्ति तभी मिल सकती है जब कोई पुरुष, पूर्ण प्रेम के साथ, अपनी आत्मा उसके साथ साझा करे… या बलिदान दे।


आरव को वह सच्चे प्रेम से चाहने लगी थी। लेकिन उसका मोह प्रेम और पिशाचत्व के बीच झूल रहा था।



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अध्याय 5: अंतिम रात्रि


आरव अब निर्णय के मोड़ पर था। गाँव लौटकर वह सब कुछ भूल सकता था। या फिर… चंद्रलेखा को मुक्त कर सकता था।


वह लौटा। पूर्णिमा की रात। चंद्रलेखा उसका इंतज़ार कर रही थी।

उसने कहा:


> "अगर आज तुमने मुझे प्रेम से छुआ… तो मैं मुक्त हो जाऊँगी। लेकिन तुम… इस संसार से चले जाओगे।"




आरव ने उसकी आँखों में देखा।

धीरे से उसके पास आया।

होंठ उसके होंठों से मिले।

शरीर एक हो गए।

आत्माएँ बहने लगीं — एक दूसरे में।


काया जलती रही, पिघलती रही।

सपनों की तरह रात बीती… और सवेरा चुप था।



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अध्याय 6: पुनर्जन्म या शाप?


सुबह झील के पास केवल एक संगमरमर की मूर्ति थी — जिसमें एक पुरुष और एक स्त्री आलिंगनबद्ध थे।


गाँव वाले कहते हैं, हर पूर्णिमा की रात, कोई प्रेमी-प्रेमिका अगर उस मूर्ति के पास प्रणय करता है — तो उनका बंधन कभी नहीं टूटता।


पर जो अकेला जाता है… वह वापस नहीं आता।






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